नवरात्रि में हम दुर्गा माँ की पूजा आराधना करते है और विधिवत माँ का पूजन करते हैं। जिसके लिए श्री दुर्गा सप्तशती के पाठ (Durga Saptashati Path In Hindi) के साथ साथ उनकी आराधना भी करनी चाहिए।
अथ सप्तश्लोकी दुर्गा | – Durga Saptashati Path
श्री दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् – Durga Saptashati Path
पाठविधिः –Durga Saptashati Path
अथ देव्याः कवचम् –Durga Saptashati Path
ॐ अस्य श्रीअर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुर्ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहालक्ष्मीर्देवता, श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः॥
ॐ नमश्चण्डिकायै॥
मार्कण्डेय उवाच
ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥१॥
ॐ चण्डिकादेवीको नमस्कार है।
मार्कण्डेयजी कहते हैं –जयन्ती’, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी’, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा’° और स्वधा१– इन
१. जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते इति ‘जयन्ती’- सबसे उत्कृष्ट एवं विजयशालिनी। २. मङ्गं जननमरणादिरूपं सर्पणं भक्तानां लाति गृह्णाति नाशयति या सा मङ्गला मोक्षप्रदा-जो अपने भक्तोंके जन्म-मरण आदि संसार-बन्धनको दूर करती हैं, उन मोक्षदायिनी मंगलमयी देवीका नाम ‘मंगला’ है । ३. कलयति भक्षयति प्रलयकाले सर्वम् इति काली–जो प्रलयकालमें सम्पूर्ण सृष्टिको अपना ग्रास बना लेती है; वह ‘काली’ है। ४. भद्रं मङ्गलं सुखं वा कलयति स्वीकरोति भक्तेभ्यो दातुम् इति भद्रकाली सुखप्रदा–जो अपने भक्तोंको देनेके लिये ही भद्र, सुख किंवा मंगल स्वीकार करती है, वह ‘भद्रकाली’ है। ५. हाथमें कपाल तथा गले में मुण्डमाला धारण करनेवाली। ६. दुःखेन अष्टाङ्गयोगकर्मोपासनारूपेण क्लेशेन गम्यते प्राप्यते या सा दुर्गा-जो अष्टांगयोग, कर्म एवं उपासनारूप दुःसाध्य साधनसे प्राप्त होती हैं, वे जगदम्बिका ‘दुर्गा’ कहलाती हैं। ७. क्षमते सहते भक्तानाम् अन्येषां वा सर्वानपराधान् जननीत्वेनातिशयकरुणामयस्वभावादिति क्षमा सम्पूर्ण जगत्की जननी होनेसे अत्यन्त करुणामय स्वभाव होनेके कारण जो भक्तों अथवा दूसरोंके भी सारे अपराध क्षमा करती हैं, उनका नाम ‘क्षमा’ है। ८. सबका शिव अर्थात् कल्याण करनेवाली जगदम्बाको ‘शिवा’ कहते हैं। ९.सम्पूर्ण प्रपंचको धारण करनेके कारण भगवतीका नाम ‘धात्री’ है। १०.स्वाहारूपसे यज्ञभाग ग्रहण करके देवताओंका पोषण करनेवाली। ११.स्वधारूपसे श्राद्ध और तर्पणको स्वीकार करके पितरोंका पोषण करनेवाली।
* अर्गलास्तोत्रम्
जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतातिहारिणि।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते॥२॥
मधुकैटभविद्राविविधातृवरदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥३॥
महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥४॥
रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥५॥
शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥६॥
नामोंसे प्रसिद्ध जगदम्बिके! तुम्हें मेरा नमस्कार हो। देवि चामुण्डे! तुम्हारी जय हो। सम्पूर्ण प्राणियोंकी पीड़ा हरनेवाली देवि! तुम्हारी जय हो। सबमें व्याप्त रहनेवाली देवि! तुम्हारी जय हो। कालरात्रि! तुम्हें नमस्कार हो॥१-२॥ मधु और कैटभको मारनेवाली तथा ब्रह्माजीको वरदान देनेवाली देवि! तुम्हें नमस्कार है। तुम मुझे रूप (आत्मस्वरूपका ज्ञान) दो, जय (मोहपर विजय) दो, यश (मोह-विजय तथा ज्ञान-प्राप्तिरूप यश) दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो॥३॥ महिषासुरका नाश करनेवाली तथा भक्तोंको सुख देनेवाली देवि! तुम्हें नमस्कार है। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो॥४॥ रक्तबीजका वध और चण्डमुण्डका विनाश करनेवाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और कामक्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो॥५॥ शुम्भ और निशुम्भ तथा धूम्रलोचनका मर्दन करनेवाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो॥६॥ ३२
* श्रीदुर्गासप्तशत्याम्*
वन्दिताघ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ ७ ॥
अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ ८ ॥
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ ९ ॥
स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१०॥
चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥११॥
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१२॥
सबके द्वारा वन्दित युगल चरणोंवाली तथा सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान करनेवाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो॥७॥ देवि! तुम्हारे रूप और चरित्र अचिन्त्य हैं। तुम समस्त शत्रुओंका नाश करनेवाली हो। रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो॥८॥ पापोंको दूर करनेवाली चण्डिके! जो भक्तिपूर्वक तम्हारे चरणोंमें सर्वदा मस्तक झुकाते हैं, उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और उनके काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो ॥९॥ रोगोंका नाश करनेवाली चण्डिके ! जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते हैं, उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और उनके काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो॥१०॥ चण्डिके! इस संसारमें जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी पूजा करते हैं, उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और उनके काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो॥११॥ मुझे सौभाग्य और आरोग्य दो। परम सुख दो, रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो॥ १२
अर्गलास्तोत्रम् *
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१३॥
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१४॥ सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१५॥
विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१६॥
प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१७॥
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१८॥
जो मुझसे द्वेष रखते हों, उनका नाश और मेरे बलकी वृद्धि करो। रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो॥ १३ ॥ देवि! मेरा कल्याण करो। मुझे उत्तम सम्पत्ति प्रदान करो। रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो॥१४॥
अम्बिके! देवता और असुर- दोनों ही अपने माथेके मुकुटकी मणियोंको तुम्हारे चरणोंपर घिसते रहते हैं। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो ॥ १५ ॥ तुम अपने भक्तजनको विद्वान्, यशस्वी और लक्ष्मीवान् बनाओ तथा रूप दो, जय दो, यश दो और उसके काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो ॥ १६॥ प्रचण्ड दैत्योंके दर्पका दलन करनेवाली चण्डिके! मुझ शरणागतको रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो॥१७॥ चतुर्मुख ब्रह्माजीके द्वारा प्रशंसित चार भुजाधारिणी परमेश्वरि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो ॥ १८ ॥
*श्रीदुर्गासप्तशत्याम् *
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१९॥
हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२०॥
इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२१॥
देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२२॥
देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२३॥
देवि अम्बिके ! भगवान् विष्णु नित्य-निरन्तर भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते रहते हैं। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो॥ १९॥ हिमालय-कन्या पार्वतीके पति महादेवजीके द्वारा प्रशंसित होनेवाली परमेश्वरि ! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो ॥ २०॥ शचीपति इन्द्रके द्वारा सद्भावसे पूजित होनेवाली परमेश्वरि ! तम रूप दो. जय दो. यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रओंका नाश करो॥ २१ ॥ प्रचण्ड भुजदण्डोंवाले दैत्योंका घमंड चूर करनेवाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो ॥ २२ ॥ देवि अम्बिके! तुम अपने भक्तजनोंको सदा असीम आनन्द प्रदान करती रहती हो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम-क्रोध आदि शत्रुओंका नाश करो ॥ २३ ॥
* अर्गलास्तोत्रम् *
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥२४॥
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः। सतुसप्तशतीसंख्यावरमाप्नोति सम्पदाम्॥ ॐ॥२५॥
इति देव्या अर्गलास्तोत्रं सम्पूर्णम्।
मनकी इच्छाके अनुसार चलनेवाली मनोहर पत्नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसारसागरसे तारनेवाली तथा उत्तम कुलमें उत्पन्न हुई हो ॥ २४॥ जो मनुष्य इस स्तोत्रका पाठ करके सप्तशतीरूपी महास्तोत्रका पाठ करता है, वह सप्तशतीकी जप-संख्यासे मिलनेवाले श्रेष्ठ फलको प्राप्त होता है। साथ ही वह प्रचुर सम्पत्ति भी प्राप्त कर लेता है॥ २५॥
ॐ अस्य श्रीकीलकमन्त्रस्य शिव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहासरस्वती देवता, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थं सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।
ॐ नमश्चण्डिकायै॥
मार्कण्डेय उवाच
ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे।
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे ॥१॥ सर्वमेतद्विजानीयान्मन्त्राणामभिकीलकम् ।
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जाप्यतत्परः॥२॥ सिद्धयन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि सकलान्यपि।
एतेन स्तुवतां देवी स्तोत्रमात्रेण सिद्ध्यति॥३॥
ॐ चण्डिकादेवीको नमस्कार है।
मार्कण्डेयजी कहते हैं— विशुद्ध ज्ञान ही जिनका शरीर है, तीनों वेद ही जिनके तीन दिव्य नेत्र हैं, जो कल्याण-प्राप्तिके हेतु हैं तथा अपने मस्तकपर अर्धचन्द्रका मुकुट धारण करते हैं, उन भगवान् शिवको नमस्कार है॥१॥ मन्त्रोंका जो अभिकीलक है अर्थात् मन्त्रोंकी सिद्धिमें विघ्न उपस्थित करनेवाले शापरूपी कीलकका जो निवारण करनेवाला है, उस सप्तशतीस्तोत्रको सम्पूर्णरूपसे जानना चाहिये (और जानकर उसकी उपासना करनी चाहिये), यद्यपि सप्तशतीके अतिरिक्त अन्य मन्त्रोंके जपमें भी जो निरन्तर लगा रहता है, वह भी कल्याणका भागी होता है॥२॥ उसके भी उच्चाटन आदि कर्म सिद्ध होते हैं तथा उसे भी समस्त दुर्लभ वस्तुओंकी प्राप्ति हो जाती है; तथापि जो अन्य मन्त्रोंका जप न करके केवल इस सप्तशती नामक स्तोत्रसे ही देवीकी स्तुति करते हैं, उन्हें स्तुतिमात्रसे ही सच्चिदानन्दस्वरूपिणीदेवी सिद्ध हो जाती हैं ॥३॥
कीलकम् *
न मन्त्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते।
विना जाप्येन सिद्धयेत सर्वमुच्चाटनादिकम्॥४॥
समग्राण्यपि सिद्ध्यन्ति लोकशङ्कामिमां हरः।
कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम्॥५॥
स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुप्तं चकार सः।
समाप्तिन च पुण्यस्य तां यथावन्नियन्त्रणाम्॥६॥
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेवं न संशयः।
कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः॥७॥
उन्हें अपने कार्यकी सिद्धिके लिये मन्त्र, ओषधि तथा अन्य किसी साधनके उपयोगकी आवश्यकता नहीं रहती। बिना जपके ही उनके उच्चाटन आदि समस्त आभिचारिक कर्म सिद्ध हो जाते हैं॥४॥ इतना ही नहीं, उनकी सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ भी सिद्ध होती हैं। लोगोंके मनमें यह शंका थी कि ‘जब केवल सप्तशतीकी उपासनासे अथवा सप्तशतीको छोड़कर अन्य मन्त्रोंकी उपासनासे भी समानरूपसे सब कार्य सिद्ध होते हैं, तब इनमें श्रेष्ठ कौन-सा साधन है?’ लोगोंकी इस शंकाको सामने रखकर भगवान् शंकरने अपने पास आये हुए जिज्ञासुओंको समझाया कि यह सप्तशती नामक सम्पूर्ण स्तोत्र ही सर्वश्रेष्ठ एवं कल्याणमय है॥५॥
तदनन्तर भगवती चण्डिकाके सप्तशती नामक स्तोत्रको महादेवजीने गुप्त कर दिया। सप्तशतीके पाठसे जो पुण्य प्राप्त होता है, उसकी कभी समाप्ति नहीं होती; किंतु अन्य मन्त्रोंके जपजन्य पुण्यकी समाप्ति हो जाती है। अतः भगवान् शिवने अन्य मन्त्रोंकी अपेक्षा जो सप्तशतीकी ही श्रेष्ठताका निर्णय किया, उसे यथार्थ ही जानना चाहिये॥६॥ अन्य मन्त्रोंका जप करनेवाला पुरुष भी यदि सप्तशतीके स्तोत्र और जपका अनुष्ठान कर ले तो वह भी पूर्णरूपसे ही कल्याणका भागी होता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो साधक कृष्णपक्षकी चतुर्दशी अथवा अष्टमीको एकाग्रचित्त होकर भगवतीकी सेवामें अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है और फिर उसे प्रसादरूपसे ग्रहण करता है, उसीपर भगवती ३८
*श्रीदुर्गासप्तशत्याम्*
ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति।
इत्थंरूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम्॥ ८ ॥
यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति संस्फुटम्।
स सिद्धः स गणः सोऽपि गन्धर्वो जायते नरः॥ ९॥
न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापीह जायते।
नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात्॥१०॥
ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत न कुर्वाणो विनश्यति।
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः॥११॥
प्रसन्न होती हैं; अन्यथा उनकी प्रसन्नता नहीं प्राप्त होती। इस प्रकार सिद्धिके प्रतिबन्धकरूप कीलके द्वारा महादेवजीने इस स्तोत्रको कीलित कर रखा है॥७-८॥ जो पूर्वोक्त रीतिसे निष्कीलन करके इस सप्तशतीस्तोत्रका प्रतिदिन स्पष्ट उच्चारणपूर्वक पाठ करता है, वह मनुष्य सिद्ध हो जाता है, वही देवीका पार्षद होता है और वही गन्धर्व भी होता है॥९॥ सर्वत्र विचरते रहनेपर भी इस संसारमें उसे कहीं भी भय नहीं होता। वह अपमृत्युके वशमें नहीं पड़ता तथा देह त्यागनेके अनन्तर मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥ १०॥ अतः कीलनको जानकर उसका परिहार करके ही सप्तशतीका पाठ आरम्भ करे। जो ऐसा नहीं करता, उसका नाश हो जाता है। इसलिये कीलक और निष्कीलनका ज्ञान प्राप्त करनेपर ही यह स्तोत्र निर्दोष होता है और विद्वान् पुरुष इस निर्दोष स्तोत्रका ही पाठ आरम्भ करते हैं ॥ ११ ॥
१. यह निष्कीलन अथवा शापोद्धारका ही विशेष प्रकार है। भगवतीका उपासक उपर्युक्त तिथिको देवीकी सेवामें उपस्थित हो अपना न्यायोपार्जित धन उन्हें अर्पित करते हुए एकाग्रचित्तसे प्रार्थना करे–’मात:! आजसे यह सारा धन तथा अपने-आपको भी मैंने आपकी सेवामें अर्पण कर दिया। इसपर मेरा कोई स्वत्व नहीं रहा।’ फिर भगवतीका ध्यान करते हुए यह भावना करे, मानो जगदम्बा कह रही हैं—’बेटा! संसार-यात्राके निर्वाहार्थ तू मेरा यह प्रसादरूप धन ग्रहण कर।’ इस प्रकार देवीकी आज्ञा शिरोधार्य करके उस धनको प्रसाद-बुद्धिसे ग्रहण करे और धर्मशास्त्रोक्त मार्गसे उसका सद्व्यय करते हुए सदा देवीके ही अधीन होकर रहे। यह ‘दानप्रतिग्रह-करण’ कहलाता है। इससे सप्तशतीका शापोद्धार होता और देवीकी कृपा प्राप्त होती है।
२. यहाँ कीलक और निष्कीलनके ज्ञानकी अनिवार्यता बतानेके लिये ही विनाश
कीलकम् *
सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद् दृश्यते ललनाजने।
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जाप्यमिदं शुभम्॥१२॥
शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः।
भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत्॥१३॥
ऐश्वर्यं यत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यसम्पदः।
शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः ॥ॐ॥१४॥
इति देव्याः कीलकस्तोत्रं सम्पूर्णम्।
स्त्रियोंमें जो कुछ भी सौभाग्य आदि दृष्टिगोचर होता है, वह सब देवीके प्रसादका ही फल है। अतः इस कल्याणमय स्तोत्रका सदा जप करना चाहिये ॥ १२॥ इस स्तोत्रका मन्दस्वरसे पाठ करनेपर स्वल्प फलकी प्राप्ति होती है और उच्चस्वरसे पाठ करनेपर पूर्ण फलकी सिद्धि होती है। अतः उच्चस्वरसे ही इसका पाठ आरम्भ करना चाहिये ॥ १३॥ जिनके प्रसादसे ऐश्वर्य, सौभाग्य, आरोग्य, सम्पत्ति, शत्रुनाश तथा परम मोक्षकी भी सिद्धि होती है, उन कल्याणमयी जगदम्बाकी स्तुति मनुष्य क्यों नहीं करते? ॥ १४ ॥
होना कहा है। वास्तवमें किसी प्रकार भी देवीका पाठ करे, उससे लाभ ही होता है। यह बात वचनान्तरोंसे सिद्ध है। ४०
* श्रीदुर्गासप्तशत्याम् *
इसके अनन्तर रात्रिसूक्तका पाठ करना उचित है। पाठके आरम्भमें रात्रिसूक्त और अन्तमें देवीसूक्तके पाठकी विधि है। मारीचकल्पका वचन है
रात्रिसूक्तं पठेदादौ मध्ये सप्तशतीस्तवम्।
प्रान्ते तु पठनीयं वै देवीसूक्तमिति क्रमः॥
रात्रिसूक्तके बाद विनियोग, न्यास और ध्यानपूर्वक नवार्णमन्त्रका जप करके सप्तशतीका पाठ आरम्भ करना चाहिये। पाठके अन्तमें पुनः विधिपूर्वक नवार्णमन्त्रका जप करके देवीसूक्तका तथा तीनों रहस्योंका पाठ करना उचित है। कोई-कोई नवार्णजपके बाद रात्रिसूक्तका पाठ बतलाते हैं तथा अन्तमें भी देवीसूक्तके बाद नवार्णजपका औचित्य प्रतिपादन करते हैं; किंतु यह ठीक नहीं है। चिदम्बरसंहितामें कहा है- ‘मध्ये नवार्णपटितं कत्वा स्तोत्रं सदाभ्यसेत्।‘ अर्थात् सप्तशतीका पाठ बीचमें हो और आदि-अन्तमें नवार्णजपसे उसे सम्पुटित कर दिया जाय। डामरतन्त्रमें यह बात अधिक स्पष्ट कर दी गयी है-
शतमादौ शतं चान्ते जपेन्मन्त्रं नवार्णकम्।
चण्डी सप्तशती मध्ये सम्पुटोऽयमुदाहृतः॥
अर्थात आदि और अन्तमें सौ-सौ बार नवार्णमन्त्रका जप करे और मध्यमें सप्तशती दुर्गाका पाठ करे; यह सम्पुट कहा गया है। यदि आदिअन्तमें रात्रिसूक्त और देवीसूक्तका पाठ हो और उसके पहले एवं अन्तमें नवार्ण-जप हो, तब तो वह पाठ नवार्ण-सम्पुटित नहीं कहला सकता; क्योंकि जिससे सम्पुट हो उसके मध्यमें अन्य प्रकारके मन्त्रका प्रवेश नहीं होना चाहिये। यदि बीचमें रात्रिसूक्त और देवीसूक्त रहेंगे तो वह पाठ उन्हींसे सम्पुटित कहलायेगा; ऐसी दशामें डामरतन्त्र आदिके वचनोंसे स्पष्ट ही विरोध होगा। अतः पहले रात्रिसूक्त, फिर नवार्ण-जप, फिर न्यासपूर्वक सप्तशती-पाठ, फिर विधिवत् नवार्ण-जप, फिर क्रमशः देवीसूक्त एवं रहस्यत्रयका पाठ- यही क्रम ठीक है। रात्रिसूक्त भी दो प्रकारके हैं-वैदिक और तान्त्रिक। वैदिक रात्रिसूक्त ऋग्वेदकी आठ ऋचाएँ हैं और तान्त्रिक तो दुर्गासप्तशतीके प्रथमाध्यायमें ही है। यहाँ दोनों दिये जाते हैं। रात्रिदेवताके प्रतिपादक सक्तको रात्रिसक्त कहते हैं। यह रात्रिदेवी दो प्रकारकी हैं- एक जीवरात्रि और दूसरी ईश्वररात्रि। जीवरात्रि वही है, जिसमें प्रतिदिन जगत्के साधारण जीवोंका व्यवहार लुप्त होता है। दूसरी ईश्वररात्रि वह है, जिसमें
* रात्रिसूक्तम्*
अथ वेदोक्तं रात्रिसूक्तम् ।
ॐ रात्रीत्याद्यष्टर्चस्य सूक्तस्य कुशिकः सौभरो रात्रिर्वा भारद्वाजो ऋषिः, रात्रिर्देवता, गायत्री छन्दः, देवीमाहात्म्यपाठे विनियोगः।
ॐ रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभिः।
विश्वा अधि श्रियोऽधित॥१
ओर्वप्रा अमर्त्यानिवतो देव्युद्वतः।
ज्योतिषा बाधते तमः॥२॥
निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्यायती। अपेदु हासते तमः॥३॥
महत्तत्त्वादिरूप व्यापक इन्द्रियोंसे सब देशोंमें समस्त वस्तुओंको प्रकाशित करनेवाली ये रात्रिरूपा देवी अपने उत्पन्न किये हुए जगत्के जीवोंके शुभाशुभ कर्मोंको विशेषरूपसे देखती हैं और उनके अनुरूप फलकी व्यवस्था करनेके लिये समस्त विभूतियोंको धारण करती हैं ॥१॥
ये देवी अमर हैं और सम्पूर्ण विश्वको, नीचे फैलनेवाली लता आदिको तथा ऊपर बढ़नेवाले वृक्षोंको भी व्याप्त करके स्थित हैं; इतना ही नहीं, ये ज्ञानमयी ज्योतिसे जीवोंके अज्ञानान्धकारका नाश कर देती हैं ॥२॥ ___ परा चिच्छक्तिरूपा रात्रिदेवी आकर अपनी बहिन ब्रह्मविद्यामयी उषादेवीको प्रकट करती हैं, जिससे अविद्यामय अन्धकार स्वतः नष्ट हो जाता है॥३॥
१. ब्रह्ममायात्मिका रात्रिः परमेशलयात्मिका। तदधिष्ठातृदेवी तु भुवनेशी प्रकीर्तिता ॥
(देवीपुराण) २. ऋग्वेद……मं० १० अ० १० सू० १२७ मन्त्र १ से ८ तक।
*श्रीदुर्गासप्तशत्याम् *
सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नविक्ष्महि।
वृक्षे न वसतिं वयः॥४॥
नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिणः।
नि श्येनासश्चिदर्थिनः॥५॥
यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूये।
अथा नः सुतरा भव॥६॥
उप मा पेपिशत्तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित।
उष ऋणेव यातय॥७॥ उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिवः। रात्रि स्तोमं न जिग्युषे॥ ८॥
वे रात्रिदेवी इस समय मझपर प्रसन्न हों. जिनके आनेपर हमलोग अपने घरोंमें सुखसे सोते हैं-ठीक वैसे ही, जैसे रात्रिके समय पक्षी वृक्षोंपर बनाये हुए अपने घोंसलोंमें सुखपूर्वक शयन करते हैं ॥४॥
उस करुणामयी रात्रिदेवीके अंकमें सम्पूर्ण ग्रामवासी मनुष्य, पैरोंसे चलनेवाले गाय, घोड़े आदि पशु, पंखोंसे उड़नेवाले पक्षी एवं पतंग आदि, किसी प्रयोजनसे यात्रा करनेवाले पथिक और बाज आदि भी सुखपूर्वक सोते हैं ॥५॥
हे रात्रिमयी चिच्छक्ति! तुम कृपा करके वासनामयी वृकी तथा पापमय वृकको हमसे अलग करो। काम आदि तस्करसमुदायको भी दूर हटाओ। तदनन्तर हमारे लिये सुखपूर्वक तरनेयोग्य हो जाओ-मोक्षदायिनी एवं कल्याणकारिणी बन जाओ॥६॥ ___ हे उषा! हे रात्रिकी अधिष्ठात्री देवी! सब ओर फैला हुआ यह अज्ञानमय काला अन्धकार मेरे निकट आ पहुँचा है। तुम इसे ऋणकी भाँति दूर करोजैसे धन देकर अपने भक्तोंके ऋण दूर करती हो, उसी प्रकार ज्ञान देकर इस अज्ञानको भी हटा दो ॥७॥ ___ हे रात्रिदेवी! तुम दूध देनेवाली गौके समान हो। मैं तुम्हारे समीप आकर स्तुति आदिसे तुम्हें अपने अनुकूल करता हूँ। परम व्योमस्वरूप परमात्माकी पुत्री ! तुम्हारी कृपासे मैं काम आदि शत्रुओंको जीत चुका हूँ, तुम स्तोमकी भाँति मेरे इस हविष्यको भी ग्रहण करो॥८॥
इस प्रकार रात्रिसूक्त और देव्यथर्वशीर्षका पाठ करनेके पश्चात् निम्नांकितरूपसे नवार्णमन्त्रके विनियोग, न्यास और ध्यान आदि करे।
श्रीगणपतिर्जयति। ‘ॐ अस्य श्रीनवार्णमन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः, गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांसि, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः, ऐं बीजम् , ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकम्, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।‘ इसे पढ़कर जल गिराये।
नीचे लिखे न्यासवाक्योंमेंसे एक-एकका उच्चारण करके दाहिने हाथकी अँगुलियोंसे क्रमशः सिर, मुख, हृदय, गुदा, दोनों चरण और नाभि- इन अगोंका स्पर्श करे।
ऋष्यादिन्यासः
ब्रह्मविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नमः, शिरसि। गायत्र्युष्णिगनुष्टुप्छन्दोभ्यो नमः, मुखे।
दोनों समय अध्ययन करनेवाला निष्पाप होता है। मध्यरात्रिमें तुरीय* संध्याके समय जप करनेसे वासिद्धि प्राप्त होती है। नयी प्रतिमापर जप करनेसे देवतासान्निध्य प्राप्त होता है। प्राणप्रतिष्ठाके समय जप करनेसे प्राणोंकी प्रतिष्ठा होती है। भौमाश्विनी (अमृतसिद्धि) योगमें महादेवीकी सन्निधिमें जप करनेसे महामृत्युसे तर जाता है। जो इस प्रकार जानता है, वह महामृत्युसे तर जाता है। इस प्रकार यह अविद्यानाशिनी ब्रह्मविद्या है।
* श्रीविद्याके उपासकोंके लिये चार संध्याएँ आवश्यक हैं। इनमें तुरीय संध्या मध्यरात्रिमें होती है।
* नवार्णविधिः *
महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताभ्यो नमः, हृदि। ऐं बीजाय नमः, गुह्ये। ह्रीं शक्तये नमः, पादयोः। क्लीं कीलकाय नमः, नाभौ।
‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे‘— इस मूलमन्त्रसे हाथोंकी शुद्धि करके करन्यास करे।
करन्यासः
करन्यासमें हाथकी विभिन्न अँगुलियों, हथेलियों और हाथके पृष्ठभागमें मन्त्रोंका न्यास (स्थापन) किया जाता है। इसी प्रकार अंगन्यासमें हृदयादि अंगोंमें मन्त्रोंकी स्थापना होती है। मन्त्रोंको चेतन और मूर्तिमान् मानकर उनउन अंगोंका नाम लेकर उन मन्त्रमय देवताओंका ही स्पर्श और वन्दन किया जाता है, ऐसा करनेसे पाठ या जप करनेवाला स्वयं मन्त्रमय होकर मन्त्रदेवताओंद्वारा सर्वथा सुरक्षित हो जाता है। उसके बाहर-भीतरकी शुद्धि होती है, दिव्य बल प्राप्त होता है और साधना निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण तथा परम लाभदायक होती है।
_ॐ ऐं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः (दोनों हाथोंकी तर्जनी अँगुलियोंसे दोनों अंगूठोंका स्पर्श)।
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः (दोनों हाथोंके अँगूठोंसे दोनों तर्जनी अँगुलियोंका स्पर्श)।
ॐ क्लीं मध्यमाभ्यां नमः (अँगूठोंसे मध्यमा अँगुलियोंका स्पर्श)।
ॐ चामुण्डायै अनामिकाभ्यां नमः (अनामिका अँगुलियोंका स्पर्श)।
ॐ विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां नमः (कनिष्ठिका अँगुलियोंका स्पर्श)।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः (हथेलियों और उनके पृष्ठभागोंका परस्पर स्पर्श)।
हृदयादिन्यासः
इसमें दाहिने हाथकी पाँचों अँगुलियोंसे ‘हृदय’ आदि अंगोंका स्पर्श किया जाता है।
ॐ ऐं हृदयाय नमः (दाहिने हाथकी पाँचों अँगुलियोंसे हृदयका स्पर्श)।
*श्रीदुर्गासप्तशत्याम्*
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा (सिरका स्पर्श)।
ॐ क्लीं शिखायै वषट् (शिखाका स्पर्श)।
ॐ चामुण्डायै कवचाय हुम् (दाहिने हाथकी अँगुलियोंसे बायें कंधेका और बायें हाथकी अँगुलियोंसे दाहिने कंधेका साथ ही स्पर्श)।
ॐ विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट् (दाहिने हाथकी अँगुलियोंके अग्रभागसे दोनों नेत्रों और ललाटके मध्यभागका स्पर्श)।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट् (यह वाक्य पढ़कर दाहिने हाथको सिरके ऊपरसे बायीं ओरसे पीछेकी ओर ले जाकर दाहिनी
ओरसे आगेकी ओर ले आये और तर्जनी तथा मध्यमा अँगुलियोंसे बायें हाथकी हथेलीपर ताली बजाये)।
अक्षरन्यासः
निम्नांकित वाक्योंको पढ़कर क्रमशः शिखा आदिका दाहिने हाथकी अँगुलियोंसे स्पर्श करे।
ॐ ऐं नमः, शिखायाम्। ॐ ह्रीं नमः, दक्षिणनेत्रे। ॐ क्लीं नमः, वामनेत्रे। ॐ चां नमः, दक्षिणकर्णे। ॐ मुं नमः, वामकर्णे। ॐ डां नमः, दक्षिणनासापुटे। ॐ मैं नमः, वामनासापुटे। ॐ विं नमः, मुखे। ॐ च्चे नमः, गुह्ये। ___इस प्रकार न्यास करके मूलमन्त्रसे आठ बार व्यापक (दोनों हाथोंद्वारा सिरसे लेकर पैरतकके सब अंगोंका) स्पर्श करे, फिर प्रत्येक दिशामें चुटकी बजाते हुए न्यास करे
दिङ्न्यासः
ॐ ऐं प्राच्यै नमः। ॐ ऐं आग्नेय्यै नमः। ॐ ह्रीं दक्षिणायै नमः । ॐ ह्रीं नैर्ऋत्यै नमः। ॐ क्लीं प्रतीच्यै नमः। ॐ क्लीं वायव्यै नमः। ॐ चामुण्डायै उदीच्यै नमः। ॐ चामुण्डायै ऐशान्यै नमः। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ऊर्ध्वायै नमः। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे भूम्यै नमः।*
* यहाँ प्रचलित परम्पराके अनुसार न्यासविधि संक्षेपसे दी गयी है। जो विस्तारसे
* नवार्णविधिः*
ध्यानम्
खड्गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डी शिरः
शङ्ख संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां
यामस्तोत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधु कैटभम्॥१॥
अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां
दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां
सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मी सरोजस्थिताम्॥२॥२
घण्टाशूलहलानि शङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा–
पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यादिनीम्॥३॥
फिर ‘ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः‘ इस मन्त्रसे मालाकी पूजा करके प्रार्थना करे–
ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिणि।
चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव॥
ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृह्णामि दक्षिणे करे।
जपकाले च सिद्ध्यर्थं प्रसीद मम सिद्धये ॥
ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि देहि सर्वमन्त्रार्थसाधिनि साधय साधय सर्वसिद्धिं परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा।
इसके बाद ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’ इस मन्त्रका १०८ बार जप करे और
करना चाहें, वे अन्यत्रसे सारस्वतन्यास, मातृकागणन्यास, षड्देवीन्यास, ब्रह्मादिन्यास, महालक्ष्म्यादिन्यास, बीजमन्त्रन्यास, विलोमबीजन्यास, मन्त्रव्याप्तिन्यास आदि अन्य प्रकारके न्यास भी कर सकते हैं।
श्रीदुर्गासप्तशत्याम् *
गुह्यातिगुह्यगोत्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्महेश्वरि॥
इस श्लोकको पढ़कर देवीके वामहस्तमें जप निवेदन करे।
सप्तशतीन्यासः
तदनन्तर सप्तशतीके विनियोग, न्यास और ध्यान करने चाहिये। न्यासकी प्रणाली पूर्ववत् है
प्रथममध्यमोत्तरचरित्राणां ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः,
श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः, गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांसि,
नन्दाशाकम्भरीभीमाः शक्तयः, रक्तदन्तिकादुर्गाभ्रामर्यो बीजानि,
अग्निवायुसूर्यास्तत्त्वानि, ऋग्यजुःसामवेदा ध्यानानि, सकलकामनासिद्धये
श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।
ॐ खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा।
शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा१॥ अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ शूलेन पाहि नो देवि पाहि खगेन चाम्बिके।
घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च॥ तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे।
भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि॥ मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते।
यानि चात्यर्थघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम्॥ अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ खड्गशूलगदादीनि यानि चास्त्राणि तेऽम्बिके।
करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मान् रक्ष सर्वत:२॥ कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥ करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
ॐ खगिनी शूलिनी घोरा०-हृदयाय नमः।
ॐ शूलेन पाहि नो देवि०-शिरसे स्वाहा।
ॐ प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च०-शिखायै वषट्।
१. इसका अर्थ पृष्ठ ७१ में है। २. इन चार श्लोकोंका अर्थ पृष्ठ १०४-१०५ में है। ३. इसका अर्थ पृष्ठ १६४ में है।
* सप्तशतीन्यास: *
ॐ सौम्यानि यानि रूपाणि०-कवचाय हुम्।
ॐ खड्गशूलगदादीनि०–नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ सर्वस्वरूपे सर्वेशे०-अस्त्राय फट्।
ध्यानम्
विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां
कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।
हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनी
बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गा त्रिनेत्रां भजे॥
इसके बाद प्रथम चरित्रका विनियोग और ध्यान करके ‘मार्कण्डेय उवाच’ से सप्तशतीका पाठ आरम्भ करे। प्रत्येक चरित्रका विनियोग मूल सप्तशतीके साथ ही दिया गया है तथा प्रत्येक अध्यायके आरम्भमें अर्थसहित ध्यान भी दे दिया गया है। पाठ प्रेमपूर्वक भगवतीका ध्यान करते हुए करे। मीठा स्वर, अक्षरोंका स्पष्ट उच्चारण, पदोंका विभाग, उत्तम स्वर, धीरता, एक लयके साथ बोलना—ये सब पाठकोंके गुण हैं।२ जो पाठ करते समय रागपूर्वक गाता, उच्चारणमें जल्दबाजी करता, सिर हिलाता, अपनी हाथसे लिखी हुई पुस्तकपर पाठ करता, अर्थकी जानकारी नहीं रखता और अधूरा ही मन्त्र कण्ठस्थ करता है, वह पाठ करनेवालोंमें अधम माना गया है।३ जबतक अध्यायकी पूर्ति न हो, तबतक बीचमें पाठ बंद न करे। यदि प्रमादवश अध्यायके बीचमें पाठका विराम हो जाय तो पुनः प्रति बार पूरे अध्यायका पाठ करे।
१.इसका अर्थ बारहवें अध्यायके आरम्भ (पृष्ठ १७१)-में है। २.माधुर्यमक्षरव्यक्तिः पदच्छेदस्तु सुस्वरः।
धैर्य लयसमर्थं च षडेते पाठका गुणाः॥ ३.गीती शीघ्री शिर:कम्पी तथा लिखितपाठकः।
अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः॥ ४.यावन्न पूर्यतेऽध्यायस्तावन्न विरमेत्पठन्। यदि प्रमादादध्याये विरामो भवति प्रिये। पुनरध्यायमारभ्य
पठेत्सर्वं मुहर्मुहुः॥
* श्रीदुर्गासप्तशत्याम्*
अज्ञानवश पुस्तक हाथमें लेकर पाठ करनेका फल आधा ही होता है। स्तोत्रका पाठ मानसिक नहीं, वाचिक होना चाहिये। वाणीसे उसका स्पष्ट उच्चारण ही उत्तम माना गया है। बहुत जोर-जोरसे बोलना तथा पाठमें उतावली करना वर्जित है। यत्नपूर्वक शुद्ध एवं स्थिरचित्तसे पाठ करना चाहिये। यदि पाठ कण्ठस्थ न हो तो पुस्तकसे करे। अपने हाथसे लिखे हुए अथवा ब्राह्मणेतर पुरुषके लिखे हुए स्तोत्रका पाठ न करे। यदि एक सहस्रसे अधिक श्लोकोंका या मन्त्रोंका ग्रन्थ हो तो पुस्तक देखकर ही पाठ करे; इससे कम श्लोक हों तो उन्हें कण्ठस्थ करके बिना पुस्तकके भी पाठ किया जा सकता है। अध्याय समाप्त होनेपर ‘इति’, ‘वध’, ‘अध्याय’ तथा ‘समाप्त’ शब्दका उच्चारण नहीं करना चाहिये।
शुद्धेनाचलचित्तेन पठितव्यं प्रयत्नतः॥
३. कण्ठस्थपाठाभावे तु पुस्तकोपरि वाचयेत् ।
न स्वयं लिखितं स्तोत्रं नाब्राह्मणलिपिं पठेत् ॥
४. पुस्तके वाचनं शस्तं सहस्रादधिकं यदि।
ततो न्यूनस्य तु भवेद् वाचनं पुस्तकं विना ॥
५. अध्यायकी पूर्ति होनेपर यों कहना चाहिये-‘श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये प्रथमः ॐ तत्सत्।’ इसी प्रकार ‘द्वितीयः’, ‘तृतीयः’ आदि कहकर समाप्त करना चाहिये।
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